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रविवार, 2 मई 2021

12:45 am

कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान kanger valley national park jagdalpur

कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान kanger valley national park jagdalpur



जगदलपुर. प्रकृति को करीब से जानने वालों का दावा है कि पूरे छत्तीसगढ़ राज्य में कांगेर घाटी इकलौता वर्षा वन है। यहां कम -से- कम इंसानी दखल है। नदी-नालों से भरपूर घाटी की पहचान कांगेर नदी है।


कांग मतलब पवित्र और एर्र मतलब पानी होता है


भाषाई जानकारों के अनुसार कांगेर शब्द की रचना गोंडी बोली के कांग और एर्र के युग्म से मिलकर हुई है। गोंडी में इस शब्द युग्म में कांग मतलब पवित्र और एर्र मतलब पानी होता है। पवित्र जलवाली घाटी में आस्था और विश्वास के साथ इतिहास के बहुत से पन्ने अभी भी उजागर होना शेष है।


गहरे कुंए में मिले हथियारों से खोज को नई दिशा


कुछ साल पहले घाटी के ग्राम कोटमसर के पास की फूलडोंगरी के एक गहरे कुंए में जंग लगे मिले हथियारों से खोज को नई दिशा मिली थी। ऐसे ही घाटी के ठेठ दक्षिण पूर्व में कोलेग से लगी तुलसीडोंगरी के पास गंगागढ़ नामक किले की पत्थर से बनी बाहरी दीवार का पता चला था।


घाटी के बारे में इतिहासकार कहते हैं कि 10-11 वीं शताब्दी में गंगवंशीय राजाओं ने जब बारसूर को राजधानी बनाई थी तब यहां से उड़ीसा की ओर जाने वाले छोटे रास्तों में यह घाटी पड़ती थी।


लकड़ी के बने कुछ पुल


बारसूर से दंतेवाड़ा से नकुलनार-कटेकल्याण, गुमलवाड़ा, बिसरपुर, तीरथगढ़, कोटमसर, नागलसर, पुलवा, तिरिया होते शबरी नदी पार कर उड़ीसा की रामगिरी पर्वत स्थित पुण्यधाम गुप्तेश्वर और उसके आगे की यात्रा की जा सकती थी। उस काल के लकड़ी के बने कुछ पुल भी यहां बिना देख-रेख के बावजूद है।


प्राणियों के शिकार के लिए बकायदा सशुल्क परमिट रियासतकाल तक इस घाटी को बस्तर के राजाओं ने अपनी शिकारगाह बना रखा था। घाटी की पूर्वी तलहटी की करपानों, कंदराओं और मैदानों में विचरने वाले प्राणियों के शिकार के लिए बकायदा सशुल्क परमिट जारी हुआ करते थे। इतिहास के गौरव के साथ कांगेर घाटी कुदरती खूबसूरती के लिए विख्यात है।



जगदलपुर की रायपुर से दूरी 308 किमी

रायपुर, हैदाराबाद, विशाखापट्नम एवं भुवनेश्वर हवाई मार्ग से जुड़े। निकटतम रेलवे स्टेशन जगदलपुर है। जगदलपुर की रायपुर से दूरी 308 किमी है। जगदलपुर से 27 किमी पर राष्ट्रीय उद्यान है। विशाखापट्नम से दूरी 313 किमी है। 16 जून से 31 अक्टूबर तक बंद रहता है क्योंकि इस दौरान यहां पर भारी बारिश होती है।


राष्ट्रीय उद्यान के सभी नियमों का पालन करें। जीप/कार के साथ गाइड अनिवार्य रूप से ले जाएं। गांववालों और गाइडों के मार्गदर्शन में पूरी घाटी की प्रकृति और संस्कृति का पूरा आनंद लिया जा सकता है।



वन्यप्राणी | Wildlife found in kanger valley national park




कांगेर घाटी नेशनल पार्क हमेशा से पशुवर्ग के रहने के लिए एक बेहद अनुकूल स्थान रहा हैं। इस नेशनल पार्क में खास रूप से एशियाई हाथी और घड़ियाल के साथ कई लुप्तप्राय वन्यप्राणी और गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों का आवास है। कांगेर घाटी सफारी यहाँ साल भर आने वाले पर्यटकों को लुभाने के लिए बेहद खास है। इस सफारी ड्राइव में सबसे मुख्य आकर्षण रॉयल बंगाल टाइगर है। यहाँ पाई जाने वाली अन्य प्रजातियाँ जैसे एशियाई ब्लैक बीयर, वॉकिंग डियर, हॉग डियर, सांभर, स्लॉथ भी बेहद खास है। कांगेर घाटी नेशनल पार्क पक्षी प्रेमियों के लिए स्वर्ग के सामान है क्योंकि यहाँ पक्षियों की 600 प्रजातियों का घर है जिनमे ग्रेट चितकबरा हॉर्नबिल, सफेद पीठ वाला गिद्ध। मोर, हॉजसन बुशचैट, नारंगी स्तन वाले हरे कबूतर, समुद्री मछली ईगल, गोल्डन ओरियो, मछली उल्लू, शामिल हैं। कांगेर घाटी नेशनल पार्क में लुप्तप्राय सरीसृप, मुगर मगरमच्छ, और किंग कोबरा भी पाए जाते हैं।


कांगेर घाटी में आर्कषण का मुख्य केन्द्र | Main center of attraction in kanger valley National Park



यहां भैसादहरा नाम नामक स्थान पर प्राकृतिक रूप से मगरमच्छ पाये जाते है। छत्तीसगढ़ की राजकीय पक्षी पहाड‍ी मैना पाया जाता है, जो इंसानों द्वारा बोले गये शब्दो का नकल करने में माहिर होते है। कुटुम्बसर की गुफा जो प्राकृतिक रूप से निर्मित है यहां पर चूना पत्थरों के मध्य से नदियां बहती है जिससे बनने वाले स्थालाकृति बहुत ही मनमोहक लगते है। यहां पर पाई जाने वाली अंधी मछली की प्रजाति ।उड़न गिलहरी जो हवा में उड़ते हुए देखने का खुबसुरत दृश्य। वन्य प्राणियों को उनके प्राकृति आवास में करीब से देखा पाने का रोमांच।वर्ष 1982 में इसे एशिया का पहला बायोस्फीयर घोषित किया गया था। पक्षी विहार का आनंद ले सकते है। क्षेत्र में आसपास घुमने के लिये बहुत से पर्यटन स्थल है जहां आप अपनी सफर को और रोमंचक बना सके है मुख्य पर्यटन स्थल चित्रकोट जलप्रपात(Chitrakot Waterfall), तीरथगढ़ जलप्रपात(Tirthgarh Waterfall), दन्तेशवरी मंदिर(Danteshwari Temple), बारसूर गणेश मंदिर तथा बस्तर के ऐतिहासिक स्थल प्रमुख है



कांगेर घाटी नेशनल पार्क आने का सही समय | Best time to visit kanger valley National Park


इंद्रावती नेशलन पार्क छत्तीसगढ़ के दक्षिण क्षेत्र में स्थापित होने के कारण यहां गर्मियों के दिनों में काफी तेज गर्मी का सामना करना पड़ता है, गर्मी के दिनों में यहां आने से बचे यहां आने का उपयुक्त समय सितम्बर मध्य से लेकर आप फरवरी मध्यवधी में आकर आप यहां की सौन्दर्य की का आनंद उठाये और बन्य प्राणियों को जनदीक से देखने का अवसर प्राप्त करें।




कांगेर घाटी नेशनल पार्क कैसे पहुंचे How to reach kanger valley National Park

इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान आप जगदलपुर के रास्ते आसानी से पहुंच सकते हैं। कुटरू नामक गांव इस राष्ट्रीय उद्यान का मुख्य प्रवेश बिंदु माना जाता है, जो जगदलपुर–भोपालपट्टनम रोड से 22 कि.मी की दूरी पर स्थित है। । रेल मार्ग के लिए आप जगदलपुर रेलवे स्टेशन का सहारा ले सकते हैं।



12:13 am

MM Fun City - Chhattisgarh's Largest Water Park

MM Fun City - Chhattisgarh's Largest Water Park



विशाल एकड़ भूमि के विस्तार पर स्थित, रायपुर का यह वाटर कम फन एम्यूजमेंट पार्क मनोरंजन का सबसे पसंदीदा स्थान है। यह परिवार और दोस्तों के साथ आनंद लेने के लिए एक बहुत ही मजेदार दुनिया है।

मुख्य आकर्षण - फन सिटी अपने विभिन्न फन वाटर स्लाइड्स, रेन डांस, किड्स ज़ोन, रेस्तरां, वेव पूल और फैमिली पूल को समेटे हुए है। यहाँ पर उपलब्ध पानी की सवारी का क्लस्टर विभिन्न आकृतियों और मॉडलों में होगा जो आपकी सवारी को आनंदमय बना देगा। अन्य लोकप्रिय ड्रॉ हैं बारिश के नृत्य, भोज, रेस्तरां और लॉन। जब आप और परिवार थक जाते हैं तो आप एसी कमरों में आराम कर सकते हैं, और सुरक्षित रहें क्योंकि आप अधिकारियों द्वारा प्रदान किए गए सुरक्षित ताले में अपना सामान रख सकते हैं। यहां से मास्टी और धमाल प्राप्त करने के लिए पांच से छह घंटे पर्याप्त नहीं होंगे, आप अधिक समय तक रहेंगे!


स्थान - एमएम फन सिटी रायपुर के बकटारा गोधी रोड पर स्थित है
Location MM Fun City

मय - सप्ताहांत पर 10.30Am से 7Pm तक और सप्ताहांत में 10.30 Am से 8Pm तक खुला रहता है

मूल्य - टिकट 320 रुपये / प्रति व्यक्ति, रुपये 380 / प्रति व्यक्ति परिवार और 480 / एकल व्यक्ति (हरिण)

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

5:35 am

Khallari Mata Temple History in Hindi ( खल्लारी मंदिर का इतिहास)

Khallari Mata Temple History in Hindi ( खल्लारी मंदिर का इतिहास)


महासमुन्द से 25 किमी दक्षिण की ओर खल्लारी गांव की पहाड़ी के शीर्ष पर खल्लारी माता का मंदिर स्थित है। प्रतिवर्ष क्वांर एवं चैत्र नवरात्र के दौरान बड़ी संख्या में भक्तों की भीड़ इस दुर्गम पहाड़ी में दर्शन के लिये आती है। हर साल चैत्र मास की पूर्णिमा के अवसर पर वार्षिक मेले का आयोजन किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि महाभारत युग में पांडव अपनी यात्रा के दौरान इस पहाड़ी की चोटी पर आये थे, जिसका प्रमाण भीम के विशाल पदचिन्ह हैं जो इस पहाड़ी पर स्पष्ट दिख रहे हैं।


छत्तीसगढ़ के प्राचीन एवं ऐतिहासिक व धार्मिक स्थल है ‘खल्लारी’ इसका उल्लेख द्वापर युग से होता आ रहा है। द्वापर युग में हिडिम्ब नायक राक्षस का राज्य था जिसकी राजधानी सिरपुर थी हिडिम्ब ने एक वाटिका खल्लारी में बनवाया था जहां समय-समय में वह घुमने आता था इसी वाटिका के कारण इस स्थान का नाम खल्लवाटिका अर्थात राक्षस की वाटिका के रू में जाना जाता था हिडिम्ब की बाहन हिडिम्बनी थी जो अपने भाई के साथ वाटिका घुमने आती थी और इस स्थान में स्थित देवीशक्ति की पूजा अर्चना करती थी।



द्वापर युग में ही पांडव अपना राज्य छोड़कर 12 वर्ष का निर्वासन कर रहे थे इसी निर्वासनकाल में पांडव इस क्षेत्र से गुजरे महाराज धृटराष्ट के पुत्र दुर्योधन, शकुनी और अन्य कॉरवों ने मिलकर पांडवों की हत्या करने के लिए षड़यंत्र रचा था इस षडयंत्र के अंतर्गत उन सभी ने मिलकर लाख और मांश आदि से लाक्षागृह बनाया और उसमें आग लगा दी परंतु पाण्डव ने गुप्त मार्ग से निकलकर दक्षिण की ओर इसी जगह में भटकते-भटकते पहुंचे और स्वयं को सुरक्षित महसुस कर कुछ देर इसी जगह पहाड़ में विश्राम करने का निर्णय लिया तभी राक्षसों के राजा हिडिम्ब ने मनुष्य की गंध महसुस कर लिया जारा हिडिम्ब ने अपनी बहन हिडिम्बनी को बुलाया और उसे उन सभी मनुष्यों को अपने निवास स्थान तक लाने का काम सौंपा जब राक्षसी हिडिम्बनी पांडवों के पास पहुंची तो देखा कि सभी पांडव तो विश्राम कर रहे थे परंतु उनमें से एक जागकर पहरा दे रहा था वे पांडु पुत्र भीम थे राक्षसी हिडिम्बनी ने भी को देखते ही उन पर मंत्र मुग्ध हो गई और उनसे प्रेम करने लगी और सुंदर सा रूप धारण कर उनके समीप जाकर उसे विवाह करने का प्रस्ताव रखी परंतु हिडिम्बनी को अपने भाई के समान ही अत्यंत बल शाली वर चाहिये था इस के लिए उसने भीम की परीक्षा ली और भीम ने अपनी वीरता का परिचय खल्लारी पहाड़ी के ऊपर चट्टान में दिया, भीम ने अपना पैर चट्टान पर पुरी शक्ति के साथ दबाया जहां-जहां पैर पर बल दिया गयसा वहां-वहां उसका पैर चट्टान पर धस गया।


इस दृश्य को देखकर हिडिम्बनी प्रसन्न हो गई इधर हिडिम्ब देर होने के कारण अपनी बहन को ढूंडते-ढूंडते वहां पर पहुंचा तो देखा कि उसकी बहन पांडव के साथ है। परंतु जैसे ही पता चला कि हिडिम्बनी भी से प्रेम करने लगी है और उससे विवाह करना चाहती है तो हिडिम्ब क्रोधित होकर भीम को युद्ध के लिए ललकारा तब भीम और हिडिम्ब के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में भीम ने हिडिम्ब का वध कर दिया और फिर भीम और हिडिम्बनी का गंधर्व विवाह देवी के समक्ष हुआ एक वर्ष में ही हिडिम्बनी और भीम का पुत्र का जन्म हुआ उत्पन्न होने समय उसके सिर पर केश (उत्कच) न होने के कारण उसका नाम घटोत्कच (घट+उत्कच) रखा गया वह अत्यंत मायावी निकला और जन्म लेते ही बड़ा हो गया और फिर हिडिम्बनी अपने पुत्र को पांडवों को सौंपकर वह हिमाचल प्रदेश (मनाली) में चली गई और वहां उसका दैवीकरण हुआ और आज भी वहां हिडिम्बनी देवी के रूप में स्थित है।



आज भी खल्लारी पहाड़ में भीम से संबंधित अनेक चीजें देखने को मिलती है जैसे भी पांव(निशान), भीम चुल्हा, भीम खोह, भीम का हंडा आदि यह बातें यह प्रमाणित करता है कि भीम और हिडिम्बनी के विवाह और घटोत्कच के जन्म से संबंधित कुछ न कुछ सत्यता इसी पहाड़ों के जंगल में मिलती है। महाभारत में इन प्रणय का प्रमाण उपलब्ध है।



वर्तमान युग में खल्लारी का उल्लेख 15वीं सदी से ज्ञात होता है जब रतनपुर राज्य दो भागों में बंट गया एक ही राजधानी रतनपुर और दूसरे की राजधानी रायपुर में स्थापित कि गई थी दोनों राज्यों में 18-18 गढ़ थे खल्लारी भी रायपुर राज्य का एक गढ़ था खल्लारी के अंतर्गत 84 ग्राम शासित होते थे रायपुर के शासक ब्रह्मदेव का एक शिलालेख विक्रम संवत 1471 (19 जनवरी सन 1415) खल्लारी में प्राप्त हुआ हैइस शिलालेख से ज्ञात होता है कि हैहयवंश कि कलचुरी नामक शाखा में राजा सिंघण के बेटे रामचंद्र ने नागवंश के भोडिंगदेव को युद्ध में घायल किया था रामचंद्र का पुत्र ब्रह्मदेव था जो शिव जी का भक्त था शिलालेख में अंकित है कि वह योद्धाओं के लिए यम के समान, याचकों के लिए कल्पवृक्ष के समान था इस शिलालेख के सांतवे और आठवें श्लोक में खल्ल वाटिका नगरी के वर्णन में लिया गया है कि शुभ देवालय कि स्थापना वेदाध्ययन सुखी ब्राह्मण का वास, लक्ष्मी के विलास से धनी लोगों का वास इत्यादि का वर्णन मिलता है नौवे श्लोक में मोची देवपाल की वंशावली एवं दसवें श्लोक में उनके द्वारा नारायण का मंदिर निर्मित कराये जाने का उल्लेख मिलता है।




रायपुर राज के कुछ समय के लिए अंशाति फैल गई फलस्वरूप कलचुरी शाक वे खल्लारी को अपनी राजधानी बनाई और इसे वाटिकाओं से सुशोभीत कराए जाने का उल्लेख मिलता है। खल्लारी में प्राप्त शिलालेख के आधार पर देवपाल मोची का वर्णन मिलता है जो किर्तीवान था अपने कार्य में दक्ष था ब्राह्मणी का अनुचर जैसा था विभिन्न धर्म कायो का अभिलााषी था उसने अपनी शक्ति के अनुसार महान भक्ति सो नारायण (भगवाान विष्णु) का मण्डप युक्त मंदिर खल्लारी में बनवााया था मोची द्वारा मंदिर निर्माण्एा देश के इतिहास में भावात्मक एवं साामुदायिक एकता का एक अनुठा प्रमाणिक उदाहरण है।



जहां न केवल एक मोची को मंदिर बनवाने का अधिकार था बल्कि उसो इसा कार्य में राजा के साथ-सााथ ब्राह्मणों एवं कायस्थ जैसी जातियों का सहयोग भी प्राप्त था शिलालेख में मां भगवती की पूजा का भी उल्लेख मिलता है। खल्लारी में कल्चुरी शासकों के कार्यकाल के एक किलो का अवशेष भी दिखाई देता है गांव में अनेक नक्काशीदार पत्थर के स्तंभ भी पाए गए है। खल्लारी में एक प्राचीन मंडपनुमा खंडहर है जिसे लोग ‘लखेसारी’ गुडी का नाम देते है यहां तालाबों और पोखरों कि संख्या बहुत अधिक है। यहां 126 तालाबों का दस्तावेज भी प्राप्त है यह सभीी बातें खल्लारी की प्राचीनता का प्रमाण देते है।



रायपुर और रतनपुर के कुल्चुरी शासकों पर मराठों का अधिपत्य हो जाने के बाद खल्लारी का इतिहासा अंधकारमय हो जाता है। परंतु प्राचीन परिपाटी के अनुसाार मां खल्लारी की पूजा अर्चना में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं आया जो निरंतर जारी है।



खल्लारी को कालांतर में खल्लवाटिका के नाम से जाना जाता रहां खल्लारी का एक मतलब खल्ल+अरी अर्थात दुष्टों का नाश करने वाली होता है संभवतया इसी कारण देवी माता का नाम खल्लारी हुआ ऐसा मानना है कि यहां का बाजार (हाट) काफी प्रसिद्ध था देवी मां नवायुवती का रूप धारण कर बेमचा (महासमुंद) सो यहां हाट में आया करती थी मां के इस लाावण्य रूप को देखकर एक बंजारा उन पर मोहित हो गया और मां का पिछा करने लगा बार-बार चेतावानी के बाद भी जब वह नहीं माना तब देवाी ने उसो श्राप देकर पत्थर का बना दिया जो आज भी गोड पत्थर के नाम से जाना जाता है।




इधर खल्लारी माता ने पाषाण रूप धारण कर पहाड़ को अपना निवास बना लिया और यहां के ग्रामीण को सपना देकर कहा कि मैं यहां के पहाड़Þी में पत्थरों के बीच निवाास हूं। प्रकाश पूंज निकल रहा है। तब उस ग्रामीण व्यक्ति ने ग्रामवासियों के साथ उस स्थान पर गए तो वाहां देखा कि मां के पाषाण रूप में उनकी ऊंगली स्वष्ट रूप से दिखाई दे रहां था तब से ग्रामवासियों ने वहां पूजा अर्चना प्रारंभ किया जो आज भी निरंतर जारी है।



क्षेत्र के लोग मां खल्लारी को अपना रक्षक मानते है प्राकृतिक विपदा के पूर्व माता पहाड़ी सो आवाज देकर पूजारी को सजग कर दिया करती थी।


खल्लारी के विकास की गाथा


प्रारंभिक चरण में खल्लारी पहाड़ी के ऊपर कोई मंदिर नहीं था केवल एक खोह था जहां पर माता की ऊंगली का निशान था और उसी की पूजा अर्चना कि जाती थी दर्शनार्थियों की कठिनाईयों को देखते हुए महासमुंद पदस्थ तहसीलदार दुर्गाप्रसाद एवं हरिदास मेहता के सहयोग से सन 1940 में 481 सीढ़ियों का निर्माण कराया गया श्री दुर्गा प्रसाद वे माता के खोह की जगह एक छोटा सा मंदिर बनवाया जिसमें ठीक से आने-जाने की जगह नहीं थी इसी कमी को ट्रस्ट पूर्व अध्यक्ष श्री जयलाल प्रसाद चंद्राकर द्वारा अपने कार्यकाल (1965-70) में दूर कर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था खल्लारी के पूर्व विधायक मध्यप्रदेश शासन के पूर्व मंत्री लक्ष्मीनारायण इंदुरिया ने अपने कार्यकाल में खल्लारी पहाडी पर विद्युत व्यवस्था का कार्य (1984-85) में कराया इस व्यवस्था में मां खल्लारी की भव्यता में चार चांद लग गया।



श्री इंदुरिया जी ने पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए एक दिव्य बसेरा का भी निर्माण कराया है वास्तव में श्री इंदुरिया ही प्रगति के सोपान रखने वाले पहले राजनेता है। पहाड़ी के ऊपर दर्शनार्थियों को पीने के लिाए पानी की अति आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति ट्रस्ट कमेटी द्वारा अपने संसाधन सो किया जाती रही इस कमी को दूर करने का प्रयास सांसद श्री पवन दीवन जी, पूर्व विधायक श्री भेखराम साहू जी एवं पूर्व रायपुर के जिलाधीश श्री डीपी तिवारी जी के संयुक्त प्रयास से पाइप लाईन बिछाकर पहाड़ी ऊपर निरंतर जला आपूर्ति का महती कार्य किया गया जल आपूर्ति में कालांतर में उत्पन्न हुई कठिनाईयों को क्षेत्र के पूर्व सांसद श्री चंद्रशेखर साहू जी ने पंप सेट और जनरेटर किया व्यवस्था कराकर दूर किया।




पहाड़ के नीचे माता राऊर (स्थल)मंदिर की स्थापना माता के आदेशानुसार करायी गई बताया जाता है दुर्गम पहाड़ी पर रास्ता सुगम नहीं होने के कारण बुजुर्गों एवं नि:शक्त जनों के मां के दर्शन के लिए तकलीफों का सामना करना पड़ता था माता ने यहां के माल गुजार गड़ाऊ गौठिया को माता न सपने में आदेश दिया कि मेरे द्वारा फेकी जा रही कटार जहां गिरेगी हां मुर्ति की स्थापना कि जाए जो भक्त पहाड़ी पर नहीं चढ़ पायेगे उन्हें नीचे पूजा व दर्शन से पहाड़ी की भांति पुण्य लाभ प्राप्त हो सकेगा। गड़ाऊ गौठिया ने माता के आदेशानुसार नीचे मंदिर बनवाया जहां कटार गिरी थी चंद्रभान अग्रवाल द्वारा प्रदान कि गई। इस मंदिर का जीर्णोद्धार का कार्य प्रगति पर है।

मंदिर ट्रस्ट द्वारा यात्रियों की सुविधा को देखते हुए रोपवे की मांग निरंतर ट्रस्ट द्वारा छत्तीसगढ़ शासन से किया जा रहा है।



मनोकामना ज्योति प्रज्जवलित के संबंध में

सन् 1985 में सर्वप्रथम नवरात्रि मे ज्योति कलश प्रज्जलित करना प्रारंभ हुआ जिनकी संख्या 11 है। धीरे-धीरे इसकी संख्या में वृद्धि हुई और आज हजारों की संख्या में यहां मनोकामनाएं ज्योति प्रज्जवलित किया जाता है।


खल्लारी में अन्य दशर्निय स्थल


माता के दर्शन के बाद परिक्रमा के साथ गुफा में मां दंतेश्वरी के अलावा अनेक ऐसे दर्शन होते है जिसे महाभारत काल के पाण्डवों के बनवास से जुड़ा होना मानते है ऐसा माना जाता है यहां पत्थर पर भीम के पांव का निशान, भीम चुल्हा आदि देखा जा सकता है।



यहा कि अधिकांश बाते भीम से जुडी हुई मिलती है जिसमें चमत्कृत कर देने वाली प्रकृति की रचना नाव के आकार का विशाल पत्थर विशेष उल्लेखनीय है। जिसे भीम की नांव भी कहा जाता है। सैकड़ों टन वजनी यह पत्थर पहाड़ी के एक ऐसे किनारे पर स्थित है जिसका आधा भाग सैकड़ों फीट गहरायी कि ओर है। यह विशालकाय शिला एक छोटे से पत्थर पर अपना अनूठा संतुलन प्रस्तुत कर दर्शकों को प्रकृति के आगे नमन करने को बाध्य कर देता है। इसे देखने मात्र से लगता है कि थोडे धक्के से पत्थर सैकड़ों फुट नीचे जा गिरेगा किंतु हजारों साल यह अपने अनुठे संतुलन का अनवरत परिचय दे रहा है।



5:06 am

छत्तीसगढ़ का कश्मीर-चैतुरगढ़ किला

छत्तीसगढ़ का कश्मीर-चैतुरगढ़। Chaiturgarh fort


Hello! दोस्तों आपने ताज महल के बारे में तो बहोत सुना होगा इसे लोग छत्तीसगढ़ का कश्मीर के नाम से प्रशिद्ध  चैतुरगढ़ किले कहते है जो छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में स्थित हैं।


चैतुरगढ़ (लाफागढ़) कोरबा शहर से करीब 70 किलोमीटर दूर स्थित है। यह पाली से 25 किलोमीटर उत्तर की ओर 3060 मीटर की ऊंचाई पर पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित है, यह राजा पृथ्वीदेव प्रथम द्वारा बनाया गया था। पुरातत्वविदों ने इसे मजबूत प्राकृतिक किलो में शामिल किया गया है, चूंकि यह चारों ओर से मजबूत प्राकृतिक दीवारों से संरक्षित है केवल कुछ स्थानों पर उच्च दीवारों का निर्माण किया गया है।किले के तीन मुख्य प्रवेश द्वार हैं जो मेनका, हुमकारा और सिम्हाद्वार नाम से जाना जाता है।

पहाड़ी के शीर्ष पर 5 वर्ग मीटर का एक समतल क्षेत्र है, जहां पांच तालाब हैं इनमें से तीन तालाब में पानी भरा है।यहां प्रसिद्ध महिषासुर मर्दिनी मंदिर स्थित है। महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति, 12 हाथों की मूर्ति, गर्भगृह में स्थापित होती है। मंदिर से 3 किमी दूर शंकर की गुफा स्थित है। यह गुफा जो एक सुरंग की तरह है, 25 फीट लंबा है। कोई गुफा के अंदर ही जा सकता है क्योंकि यह व्यास में बहुत कम है।




चित्तौड़गढ़ की पहाड़ी अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध हैं और यह रोमांचक एह्साह का अनुभव प्रदान करती है।कई प्रकार के जंगली जानवर और पक्षी यहां पाए जाते हैं।एसईसीएल ने यहां देखने आने वाले पर्यटनो के लिए एक आराम घर का निर्माण किया है।मंदिर के ट्रस्ट ने पर्यटकों के लिए कुछ कमरे भी बनाये।

नवरात्रि के दौरान यहाँ विशेष पूजा आयोजित की जाती है।


ऐतिहासिक दृष्टि से चैतुरगढ़ किले को बहुत ही महत्व प्राप्त है। पुरातत्वविद इस किले को एक प्राकृतिक और मजबूत किला मानते है। कुछ का ऐसा भी मानना है मध्य प्रान्त और बेरार में मिले कुछ शिलालेख बताते है यह किला 933 कलचुरी के ज़माने का है और उस वक्त कलचुरी राजा का शासन था।




ऐसा माना जाता है की यहाँ का राजा हैहाया परिवार का था और उसे अठरा लड़के थे। उस राजा के लडको में से एक का नाम कलिंगा था और उस कलिंगा का लड़का कमला राजा था। कमला राजा ने तुम्मना पर कई सालो तक शासन किया था। लेकिन कमला राजा को रत्नराजा  ने हराया था।


लेकिन रत्नराजा के बाद पृथ्वीदेव ने शासन किया। ऐसा कहा जाता है की इस किले का निर्माण राजा पृथ्वीदेव ने करवाया था। भारत का पुरातत्व विभाग इस किले की देखभाल का काम देखता है।


चैतुरगढ़ किले की वास्तुकला – Chaiturgarh fort Architecture




प्रसिद्ध महिषासुर मर्दिनी मंदिर भी यहीपर है। यहाँ के मंदिर में महिषासुर मर्दिनी की 12 हातोवाली मूर्ति स्थापित की गयी है। इस मंदिर से 3 किमी की दुरी पर शंकर गुफा है। यह गुफा एक सुरंग की तरह है जो की 25 फूट की है। इस गुफा का आकार बहुत छोटा होने के कारण इसमें से रेंगते हुए ही जाना पड़ता है।


इस चैतुरगढ़ या लाफागढ़ किले की दीवारे एक तरह से ने ना होने के कारण हमें इसकी दीवारे कई जगह पर छोटी तो कई जगह पर मोटी देखने को मिलती है। किले के प्रवेश द्वार बहुत ही खुबसूरत तरीक़े से बनाया गया है। इसमें कई सारे स्तंभ और मुर्तिया भी देखने को मिलती है।


यहापर एक बहुत बड़ी गुबंद है जो मजबूत स्थम्भो पर बनायीं गयी है। इस गुबंद को आधार देने के लिए पाच स्तंभ बनवाये गए थे।


किले के बाजु में जो पहाड़ी है उसके आजूबाजू में पाच तालाब थे जो की करीब 5 वर्ग किमी में फैले हुए थे। उन पाच तालाबो में से तीनतालाब साल भर पानी से भरे रहते थे।


किले को मेनका, हुम्कारा और सिंहद्वार नामके तीन सबसे अहम द्वार माने जाते है।




बहुत सारे किले को एक ही नाम दिया जाता है। लेकिन चैतुरगढ़ के किले को एक नहीं बल्कि दो नाम दिए गए है। और यही इस किले की खासियत है। इस किले को चैतुरगढ़ के साथ साथ लाफागढ़ किला नाम से भी जाना जाता है।


और सबसे बड़ी और चौकाने वाली बात यह है की यह किला इतना उचाई पर होने के बाद इसके सबसे ऊपर के इलाके में एक नहीं बल्की पुरे पाच तालाब है और उनमेसे ज्यादातर तालाबो में साल भर पानी भरा रहता है।


अन्य जानकारी -    चैतुरगढ़ का क्षेत्र अलौकिक होने के साथ ही काफ़ी दुर्गम भी है। गुप्त गुफ़ा, झरना, नदी, जलाशय, दिव्य जड़ी-बूटी तथा औषधीय वृक्षों से यह क्षेत्र परिपूर्ण है।



गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

9:47 pm

सत्यनारायण बाबा कोसमनारा रायगढ़ | Raigarh Ka Baba Satyanarayan Kosamnara (हठयोगी)

सत्यनारायण बाबा कोसमनारा रायगढ़ | Raigarh Ka Baba Satyanarayan Kosamnara (हठयोगी)



यह कहानी छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के देवरी-डूमरपाली गांव के बाबा सत्यनारायण से जुड़ी है। बाबा सिर्फ इशारे में बात करते हैं। कहते हैं कि वे समाज की भलाई के लिए यह कठोर तपस्या कर रहे हैं। भक्ति और अंधविश्वास..दोनों में बारीक फर्क होता है। लोगों की भलाई..प्रकृति की रक्षा का संकल्प लेकर भगवान की साधना करना भक्ति है..जबकि इसके उलट अपने स्वार्थ के लिए लोगों को भ्रमित करना अंधविश्वास। यह बाबा भक्ति का उदाहरण हैं। हठ योगी सत्यनाराण बाबा पिछले 22 सालों से एक ही जगह पर बैठकर तपस्या में लीन हैं। दैनिक क्रियाओं आदि को छोड़कर हमेशा वे उसी चबूतरे पर बैठे रहते हैं। यह जगह अब धीरे-धीरे धार्मिक स्थल का रूप ले चुकी है। यह जगह है रायगढ़ से 6 किमी दूर है। सत्यनारायण बाबा 16 फरवरी, 1998 से यहां तपस्या कर रहे हैं।  वे कोई भी मौसम हो..सर्दी-गर्मी या बारिश..कभी तपस्या अधूरी नहीं छोड़ते।


बाबा का जन्म रायगढ़ जिले के कोसमनारा से करीब 19 दूर देवरी-डूमरपाली में एक गरीब किसान दयानिधि साहू और हंसमती के घर 12 जुलाई, 1984 को हुआ था।

बताते हैं कि जब बाबा की उम्र 14 साल की थी, एक दिन स्कूल जाते समय उनके दिमाग में पता नहीं क्या आया कि वे रायगढ़ की तरफ निकल पड़े। इस तरह वे अपने गांव से 19 किमी दूर कोसमनारा जा पहुंचे। फिर वहीं के होकर रह गए।


बताते हैं कि जब बाबा की उम्र 14 साल की थी, एक दिन स्कूल जाते समय उनके दिमाग में पता नहीं क्या आया कि वे रायगढ़ की तरफ निकल पड़े। इस तरह वे अपने गांव से 19 किमी दूर कोसमनारा जा पहुंचे। फिर वहीं के होकर रह गए।बताते हैं कि बाबा शिवजी के भक्त हैं। यहां आकर उन्होंने शिवलिंग की स्थापना की। फिर पूरा जीवन शिवजी को समर्पित कर दिया।बताते हैं कि बाबा शिवजी के भक्त हैं। यहां आकर उन्होंने शिवलिंग की स्थापना की। फिर पूरा जीवन शिवजी को समर्पित कर दिया।


बाबा के बचपन का नाम हलधर था। लेकिन पिता उन्हें सत्यनारायण कहकर पुकारने लगे थे। गांववाले बताते हैं कि बचपन से ही बाबा शिवजी के भक्त थे। उन्होंने बचपन में 7 दिनों तक शिवजी की तपस्या की थी।

बाबा के बचपन का नाम हलधर था। लेकिन पिता उन्हें सत्यनारायण कहकर पुकारने लगे थे। गांववाले बताते हैं कि बचपन से ही बाबा शिवजी के भक्त थे। उन्होंने बचपन में 7 दिनों तक शिवजी की तपस्या की थी।

इस जगह पर लोगों की भारी भीड़ उमड़ती है। लोगों का कहना है कि बाबा किसी से कुछ नहीं लेते। वे समाज की भलाई और पर्यावरण आदि के संरक्षण के लिए यह तपस्या कर रहे हैं।



इस जगह पर लोगों की भारी भीड़ उमड़ती है। लोगों का कहना है कि बाबा किसी से कुछ नहीं लेते। वे समाज की भलाई और पर्यावरण आदि के संरक्षण के लिए यह तपस्या कर रहे हैं।


बाबा से जुड़ी मान्यता - लोगों की मान्यता है कि बाबा किसी से बात नहीं करते, जरूरत के मुताबिक इशारों से ही समझाते हैं. हर मौसम में बाबा खुले आसमान के नीचे बैठे रहते हैं. स्थानिय निवासी मुकेश शर्मा का कहन है कि लोग सत्यनारायण बाबा को अवतारी भी मानते हैं. यहां हर साल लाखों लोग बाबा के दर्शन करने आते हैं. सावन  हो या शिवरात्रि यहां भक्तों का तांता लगा रहता है.



विज्ञान को चुनौती - आर्थो सर्जन डॉ. सुरेन्द्र शुक्ला का कहना है कि एक ही स्थान पर एक ही मुद्रा में इस तरह बैठना काफी खतरनाक हो सकता है. इसमें कई तरह के कॉम्पलिकेशन आ सकता है. लोग इन्हें हठयोग भी कहते हैं मगर जानकारों की मानें तो यह विज्ञान के लिए भी चुनौती है, क्योकि एक ही स्थान पर बैठे रहना, कुछ समय उठन,  फिर वापस बैठे रहना, संयमित भोजना और हर मौसम में चंद कपड़ों में रहना विज्ञान को चुनौती देने जैसा है.

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

9:57 am

भारत का पहला कचरा कैफे अम्बिकापुर छत्तीसगढ़ |India First garbage cafe in Ambikapur chattisgarh

भारत का पहला कचरा कैफे अम्बिकापुर छत्तीसगढ़ |India First garbage cafe in Ambikapur chattisgarh


Hello! दोस्तों आज हम आपको छत्तीसगढ़ के अम्बिकापुर में स्थित एक ऐसे कैफ़े के बारे में बताएंगे जहाँ कचरे के बदले खाना दिया जाता है।


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श का पहला कचरा कैफे छत्तीसगढ़ के अम्बिकापुर शहर में लॉन्च किया गया है। यह देश का पहला गार्बेज कैफे है। इसके अंतर्गत ‘नगर निगम’ गरीब और बेघर लोगों को प्लास्टिक कचरे के बदले खाना खिलाएगी। 1 किलो प्लास्टिक के बदले आप एक बार भरपेट खा लेंगे। जबकि 500 ग्राम प्लास्टिक देकर आप ब्रेकफास्ट कर सकते हैं।

अंबिकापुर, जिसे इंदौर के बाद दूसरे सबसे स्वच्छ शहर के रूप में चुना गया है, सड़कों के निर्माण के लिए प्लास्टिक का उपयोग करने की योजना बनाई है।



शहर के मुख्य बस स्टैंड से कैफे संचालित होगा, मेयर अजय तिर्की ने शहर का नगरपालिका बजट में गारबेज कैफे योजना के लिए 5 लाख रुपये प्रदान किया है। प्लास्टिक कचरे को इकट्ठा करने वाले बेघरों को मुफ्त आश्रय देने की योजना है।  अंबिकापुर में पहले से ही प्लास्टिक दानों और डामर से बनी सड़क है। राज्य की पहली ऐसी सड़क शहर में प्लास्टिक की थैलियों को मिलाकर बनाई गई है।  प्लास्टिक और डामर को मिलाकर बनाई गई सड़क टिकाऊ है, क्योंकि पानी इसके माध्यम से परमिट करता है।



इस योजना को स्वच्छता अभियान से जोड़ा जा रहा है।  'स्वच्छता अभियान' में अंबिकापुर देश का दूसरा सबसे बड़ा शहर है।  अजय तिर्की ने कहा कि निगम ने पहले ही प्लास्टिक कैरी बैग के उपयोग को प्रतिबंधित कर दिया है। इसे गारबेज कैफे योजना से जोड़कर, इसे सख्ती से लागू किया जाएगा। अम्बिकापुर ने ठोस अपशिष्ट प्रबंधन में शीर्ष नागरिक प्रशासित शहर के रूप में अपनी सशक्त उपस्थिति के लिए पिछले साल की 40वीं रैंक से शानदार प्रगति की। 

 

यह कैफे अंबिकापुर में स्थित है, जिसने भारत के दूसरे सबसे स्वच्छ शहर का खिताब हासिल किया है इस कैफे की अवधारणा यह है कि लोग अपने प्लास्टिक कचरे का वजन कर सकते हैं और बदले में गर्म भोजन का आनंद ले सकते हैं। इस प्लास्टिक से छत्तीसगढ़ के शहर अंबिकापुर में सड़क बनाई जाएगी। अंबिकापुर, इंदौर के बाद दूसरा सबसे साफ शहर चुना गया है। शहर में प्लास्टिक से बनी एक सड़क पहले से मौजूद है, जिसमें Granules और Asphalt का प्रयोग हुआ है। और हां, इस रोड में 8 लाख प्लास्टिक बैग्स का भी इस्तेमाल किया गया है।



तो दोस्तो आशा करता हु की आप को ये जानकारी अछि लगी और आप एक बार जरूर यह जान चाहोगे। तो दोस्तो हुम् फिर आपके लिए ऐशी रोचक जानकारी लेते रहेंगे आप और ये जानकारी अच्छी लगी तो Like,Coment और Share जरूर कीजिये।


धन्यवाद☺️




गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

7:36 am

पुरखौती मुक्तांगन रायपुर पुरखौती मुक्तांगन | Purkhouti Muktangan Raipur Chhattisgarh

 पुरखौती मुक्तांगन रायपुर पुरखौती मुक्तांगन | Purkhouti Muktangan Raipur Chhattisgarh



Hello! दोस्तों आज हम आपको छत्तीसगढ़ के रायपुर का एक लोकप्रिय पर्यटन आकर्षण “पुरखौती मुक्तांगन रायपुर पुरखौती मुक्तांगन" जो रायपुर राज्य के एक आकर्षण का केंद्र है ।






पुरखौती मुक्तांगन नया रायपुर स्थित एक पर्यटन केंद्र है। इसका लोकार्पण भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने वर्ष 2006 में किया था। मुक्तांगन 200 एकड़ भूमि पर फैला एक तरह का खुला संग्रहालय है, जहाँ पुरखों की समृद्ध संस्कृति को संजोया गया है। यह परिसर बहुत ही सुंदर ढंग से हमें छतीसगढ़ की लोक-संस्कृति से परिचित करता है। वनवासी जीवन शैली और ग्राम्य जीवन के दर्शन भी यहाँ होते हैं। छत्तीसगढ़ के प्रमुख पर्यटन केंद्रों की जानकारी भी यहाँ मिल जाती है- जैसे चित्रकोट का विशाल जलप्रपात जिसे भारत का ‘नियाग्रा फॉल’ भी कहा जाता है, दंतेवाडा के समीप घने जंगल में ढोलकल की पहाड़ी पर विराजे भगवान श्रीगणेश, कबीरधाम जिले के चौरागाँव का प्रसिद्ध प्राचीन भोरमदेव मंदिर इत्यादि। मुक्तांगन में छतीसगढ़ के पर्यटन स्थलों की यह प्रतिकृतियां दो उद्देश्य पूर्ण करती हैं। एक, आप उक्त स्थानों पर जाये बिना भी उनकी सुंदरता एवं महत्व को अनुभव कर सकते हैं। दो, यह प्रतिकृतियां मुक्तांगन में आने वाले पर्यटकों को अपने मूल पर आने के लिए आमंत्रित करती हैं।




पुरखौती मुक्तांगन की बाहरी दीवार को देखकर ही मन प्रफुल्लित हो उठता है। क्या सुंदर चित्रकारी बाहरी दीवार पर की गई है, अद्भुत। दीवार पर छत्तीसगढ़ की परंपरागत चित्रकारी से लोक-कथाओं को प्रदर्शित किया गया है। भीतर जाने से पहले सोचेंगे कि बाहरी दीवार को ही अच्छे से निहार लिया जाए और उस पर बनाए गए चित्रों से भी छत्तीसगढ़ी संस्कृति की कहानी को देख-सुन लिया जाए। मुक्तांगन में प्रवेश के लिए टिकट लगता है, जिसका जेब पर कोई बोझ नहीं आता। अत्यंत कम खर्च में हम अपनी विरासत का साक्षात्कार कर पाते हैं। जैसे ही भीतर प्रवेश करोगे, आदमकद प्रतिमाओं से स्वागत होगा । एक लंबा रास्ता हमें ‘छत्तीसगढ़ चौक’ तक लेकर जाता है, जिसके दोनों ओर लोक-जीवन को अभिव्यक्त करतीं आदमकद प्रतिमाएं खड़ी हैं। चौक से एक राह ‘आमचो बस्तर’ की ओर जाती है, जहाँ बस्तर की लोक-संस्कृति को प्रदर्शित किया गया है। दूसरी ओर छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण स्थानों एवं नृत्य की झलकियाँ प्रदर्शित हैं, जिसमें पंथी नृत्य, गेड़ी नृत्य, सुवा नृत्य और राउत नाच इत्यादि को आदमकद प्रतिमाओं के जरिये दिखाया गया है। थोड़ा डूब कर देखो तो लगने लगेगा कि यह प्रतिमाएं स्थिर नहीं हैं, सचमुच नाच रही हैं। मूर्तियों के चेहरों के भाव जीवंत दिखाई देते हैं। आनंद से सराबोर हाव-भाव देखकर अपना भी नाचने का मन हो उठे। छत्तीसगढ़ के निर्माण में जिन महापुरुषों का योगदान है, उनकी आदमकद प्रतिमाएं भी इस मुक्तांगन में हैं।






‘आमचो बस्तर’ नाम से विकसित प्रखंड में बस्तर की जीवन शैली और संस्कृति के जीवंत दर्शन होते हैं। जीवंत इसलिए, क्योंकि इस प्रखंड के निर्माण एवं इसको सुसज्जित करने में बस्तर अंचल के ही जनजातीय लोक कलाकारों एवं शिल्पकारों का सहयोग लिया गया है। यही कारण है कि यहाँ बनाई गई गाँव की प्रतिकृतियां बनावटी नहीं लगतीं। आमचो बस्तर का द्वार जगदलपुर के राजमहल का सिंग डेउढ़ी जैसा बनाया गया है। समीप में ही विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरे का रथ भी रखा गया है। एक गोलाकार मण्डप में चित्रों के माध्यम से बस्तर दशहरे के संपूर्ण विधान को भी प्रदर्शित किया गया है। इस प्रखंड में धुरवा होलेक, मुरिया लोन, कोया लोन, जतरा, अबूझमाडिय़ा लोन, गुन्सी रावदेव, बूढ़ी माय, मातागुड़ी, घोटुल, फूलरथ, नारायण मंदिर, गणेश विग्रह, राव देव, डोलकल गणेश, पोलंग मट्टा, उरूसकाल इत्यादि को प्रदर्शित किया गया है। होलेक और लोन अर्थात् आवास गृह। एक स्थान पर लोहा गला कर औजार बनाने की पारंपरिक विधि ‘घानासार’ को भी यहाँ प्रदर्शित किया गया है। पुरखौती मुक्तांगन को अभी और विकसित किया जाना है। पूर्ववर्ती सरकार की इच्छा इसे आदिवासी अनुसंधान केंद्र एवं संग्रहालय के रूप में विकसित करने की थी।



परखौती मुक्तांगन छत्तीसगढ़ के पारंपरिक खान-पान का स्वाद लेने के लिए ‘गढ़ कलेवा’ नामक स्थान है । यह स्थान महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर के परिसर में है। रायपुर आने वाले पर्यटकों और जो लोग अपने पारंपरिक खान-पान से दूर हो चुके हैं, उन्हें छत्तीसगढ़ी व्यंजन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से 26 जनवरी, 2016 को गढ़ कलेवा का शुभारंभ हुआ। गढ़ कलेवा का संचालन महिला स्व-सहायता समूह द्वारा किया जाता है। यहाँ भी छत्तीसगढ़ की लोक-संस्कृति का अनुभव किया जा सकता है। बैठने के लिए बनाए गए कक्षों/स्थानों के नाम इसी प्रकार के रखे गए हैं, यथा- पहुना, संगवारी, जंवारा इत्यादि। गढ़ कलेवा परिसर में आंतरिक सज्जा ग्रामीण परिवेश की है। बरगद पर मचान बनाया गया है। बैठने के बनाए गए कक्षों को रजवार समुदाय के शिल्पियों ने मिट्टी की जालियां और भित्ति चित्र से सज्जित किया है। बस्तर के मुरिया वनवासियों ने लकड़ी की उत्कीर्ण बेंच, स्टूल, बांस के मूढ़े बनाये हैं। अपन राम ने यहाँ चीला, फरा, बफौरी जैसे छत्तीसगढ़ी व्यंजन का स्वाद लिया। इसके अलावा चौसेला, घुसका, हथफोड़वा, माड़ा पीठा, पान रोटी, गुलगुला, बबरा, पिडिय़ा, डेहरौरी, पपची इत्यादि भी उपलब्ध थे, लेकिन बफौरी थोड़ी भारी हो गई। पेट ने इस तरह जवाब किया कि ‘चहा पानी ठिहाँ’ पर चाह कर भी करिया चाय, दूध चाय, गुड़ चाय और काके पानी का स्वाद नहीं ले सका। अधिक खाने के बाद उसे पचाने के लिए तेलीबांधा तालाब पर विकसित ‘मरीन ड्राइव’ टहलने का आनंद भी उठाया जा सकता है। शाम के बाद यहाँ टहलने के लिए बड़ी संख्या में लोग आते हैं। रायपुर की मरीन ड्राइव देर रात तक गुलजार रहती है।



वहाँ पर गांववालों की आदमक़द प्रतिमाएँ भी हैं जिन्हें अपने दैनिक काम-काज करते हुए दिखाया गया है। हमारी इस यात्रा के दौरान पुरखौती मुक्तांगन में यहाँ वहां निर्माण कार्य चल रहा था। इसके बावजूद भी उस माहौल में घूमना हमारे लिए बहुत ही आनंददायी था। इस जगह के द्वारा हम भारत के ग्राम्य जीवन को देख और समझ पा रहे थे। पुरखौती मुक्तांगन का भ्रमण कर पता चलता है की कला जीवन के एक अटूट भाग हुआ करता था ना कि बस एक दिखावे की वास्तु मात्र जिसका प्रयोजन केवल हमारी दीवारों का सुसज्जित करना है।





पुरातात्विक स्थलों की प्रतिकृति और सर्वोत्कृष्ट संरचनाएं   

प्रसिद्द भोरेम देव मंदिर - छत्तीसगढ़ 

यहाँ पर प्रमुख छत्तीसगढ़ के पुरातात्विक स्थलों और सर्वोत्कृष्ट संरचनाओं का आदमक़द रचनाओं के रूप में पुनःनिर्माण किया गया है, जैसे कि भोरम देव का मंदिर और ताला की रुद्रशिव की मूर्ति। मुझे बताया गया कि इस संग्रहालय का मुख्य उद्देश्य यहाँ पर आनेवाले आगंतुकों को छत्तीसगढ़ की लोक-संस्कृति की एक छोटी सी झलक प्रदान करना है, जो अन्यथा शायद इन दूरवर्ती जगहों पर ना जाए। यहाँ पर छत्तीसगढ़ के स्वतंत्र सेनानियों की भी प्रतिमाएँ हैं।






कुल मिलाकर रायपुर के प्रवास को ‘पुरखौती मुक्तांगन’ और ‘गढ़ कलेवा’ ने आपकी समय को यादगार बना देगा । यदि आप कभी रायपुर जायें तो इन दोनों जगह जाना न भूलियेगा। पुरखौती मुक्तांगन में आपको तीन-चार घंटे का समय लेकर जाना चाहिए। गर्मी के दिनों में जाएं तो शाम के समय का चयन करें। सर्दी में किसी भी समय जा सकते हैं।







तो दोस्तो आशा करता हु की आप को ये जानकारी अछि लगी और आप एक बार जरूर यह जान चाहोगे। तो दोस्तो हुम् फिर आपके लिए ऐशी रोचक जानकारी लेते रहेंगे आप और ये जानकारी अच्छी लगी तो Like,Coment और Share जरूर कीजिये।


धन्यवाद☺️